श्री विष्णु दशावतार कथा
भगवान विष्णु ने क्यों लिए दशावतार ?
‘दशावतार’ शब्द से हम सब परिचित होंगे, लेकिन क्या आपको पता है कि इस शब्द के साथ भगवान श्री हरि को क्यों जोड़ा जाता है? त्रेतायुग में राम बन कर, तो द्वापरयुग में श्याम बनके, कभी मछली के रूप में, तो कभी वराह या कच्छप के रूप में जगतपाल श्री विष्णु ने हर युग में पृथ्वी पर धर्म और शांति की स्थापना हेतु विभिन्न अवतार लिए। उनके इन्हीं अवतारों को संयुक्त रूप से ‘दशावतार’ कहा गया है। हिंदू धर्म में सर्वोच्च व सर्वोत्तम माने गए श्री हरि के इन दस अवतारों का चित्रण, बड़े ही कथात्मक एवं कलात्मक रूप से किया गया है।
प्रभु के इन दस अवतारों में पहले चार अमानवीय अवतार जिनमें मत्स्य, कूर्म, वराह और नरसिंह शामिल है, जो सतयुग में हुए। वहीं इसके बाद के तीन मानवीय अवतार अर्थात वामन, परशुराम एवं मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, त्रेतायुग के थे। इसके पश्चात, द्वापर में नारायण ने श्री कृष्ण का अवतार लेकर मानव कल्याण एवं दुष्टों के दमन का उद्देश्य पूर्ण किया।
उनका कलयुग में बुद्ध के अवतार ने भी मानव जाति को केवल सत्य, अहिंसा और शांति की ही शिक्षा दी। श्री हरि के इन सभी अवतारों में मुख्य गौण, पूर्ण और अंश रूपों के और भी अनेक भेद हैं। ‘अवतार’ की उत्पत्ति सम्पूर्ण रूप से ईश्वर की ही इच्छा है। दुष्कृतों के विनाश और साधुओं के परित्राण के लिए ही प्रभु भिन्न स्वरूपों में इस धरा पर अवतीर्ण होते हैं।
‘शतपथ ब्राह्मण’ में कहा गया है कि कच्छप का रूप धारण कर प्रजापति ने एक शिशु को जन्म दिया था। वहीं ‘तैत्तिरीय ब्राह्मण’ के मतानुसार, प्रजापति ने वराह के रूप में महासागर के अन्तः स्ठल से पृथ्वी को ऊपर उठाया था। उद्देश्यों का स्वरूप अलग-अलग भले ही क्यों न हो, किन्तु कच्छप एवं वराह दोनों ही रूप विष्णु के ही हैं। विशेष रूप से मत्स्य, कच्छप, वराह एवं नृसिंह, यह चार अवतार भगवान विष्णु के प्रारम्भिक रूप के प्रतीक हैं।
इसके अलावा, पांचवें अवतार वामन रूप में श्री विष्णु ने विश्व को तीन पगों में ही नाप लिया था। इसकी प्रशंसा ऋग्वेद में भी है, यद्यपि वामन नाम नहीं लिया गया है। भगवान विष्णु के आश्चर्य से भरे हुए कार्य स्वाभाविक रूप में नहीं, किन्तु अवतारों के रूप में ही हुए हैं। वह रूप धार्मिक विश्वास में महान विष्णु से पृथक नहीं समझे गये।
महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन कुरुक्षेत्र में अपने और पराये के भेद में उलझ जाते है, तब भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए कहा था,
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम् ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥”
अर्थात श्री कृष्ण कहते हैं - “जब-जब इस पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है, विनाश का कार्य होता है और अधर्म आगे बढ़ता है, तब-तब मैं इस पृथ्वी पर आता हूँ और इस पृथ्वी पर अवतार लेता हूँ। सज्जनों और साधुओं की रक्षा करने लिए और पृथ्वी पर से पाप को नष्ट करने के लिए तथा दुर्जनों और पापियों के विनाश करने के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में बार-बार अवतार लेता हूँ और समस्त पृथ्वी वासियों का कल्याण करता हूँ।”
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